धीरे-धीरे अंधेरा मेरे पास आता गया
शायद रौशनी और अंधेरे में कोई
गुप्त समझौता हो गया था
अंधेरे के प्रतिपल बढ़ते कदम
रौशनी को पीछे धकेलते रहे और
रौशनी ने तनिक भी प्रतिरोध नहीं किया
धीरे-धीरे अंधेरे का प्रसार मेरे बाह्य
अस्तित्व को भेदकर अंतर्मन में होता गया
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ मूकदर्शक जैसे
ये सब घटित होता देखता रहा
आख़िर वो समय आ ही गया जब
अंधेरे-उजाले की दुरभिसंधि ने मुझे
अंधेरे के साम्राज्य का स्थायी नागरिक
बना दिया
अब, जबकि मेरे हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा है
मुझे रौशनी की स्मृति विचलित करती रहती है
अंधेरे की आदत तो होती जा रही है
लेकिन, अभी इसे हृदय से अपना नहीं सका हूँ
स्वीकार तो कर लिया है लेकिन
अंधेरे का सत्कार नहीं कर पाया हूँ
इस अंधेरे-उजाले के आने-जाने के
पूरे घटनाक्रम में
मेरी क्या भूमिका रही?
क्या मैंने रौशनी को बचाने की,
अंधेरे को रोकने की सच्ची कोशिश की?
मैंने कोई कोशिश की भी या नहीं?
क्या अंधेरा मुझे मात्र इसलिए स्वीकार्य
नहीं हो पा रहा क्योंकि मुझे
उजाले की आदत हो गयी थी?
क्या वाकई अंधेरे और उजाले में कोई
विरोध शाश्वत विरोध-संघर्ष चल रहा है
या अंधेरे-उजाले का सह-अस्तित्व ही
शाश्वत सत्य है?
ये मेरी भूल है या असमर्थता जो मैं एक बार में
किसी एक का ही अस्तित्व स्वीकार कर पाता हूँ?
ऐसा तो नहीं कि अंधेरा और उजाला
एक ही शाश्वत इकाई के अविच्छिन्न घटक हैं?
और मैं इसे समझ नहीं पाया।
प्रश्न अनेक हैं, उत्तर कोई मिल नहीं रहा
मैं, मेरा अस्तित्व सवालों के इस महासागर
में डूबता जा रहा है क्षण-प्रतिक्षण।