Monday, August 22, 2022

रिश्तों की बुनाई

मैंने कोशिश की
कि कोई धागा उलझ गया
या तनाव तनिक ज्यादा पड़ा
तो टूट ही गया तो
बजाय इसके कि
उस धागे को निकाल कर 
परे रख दूं और दूसरे
नए धागे से बुनाई
शुरू कर दूं
मैंने उस उलझे-टूटे धागे को
पूरी शिद्दत से सुलझाया
गांठ पड़ गई तो क्या,
जोड़ा और उसी से बुनाई की
सच है कि मेरे रिश्ते की चादर
एकदम से चिकनी, सपाट,
चमकीली नहीं है 
उसमें उलझनें हैं, टूटकर
जुड़ने की गांठें हैं
द्वंद्व की सिलवटें हैं
मगर, इसमें समाहित हैं
मेरे सफ़र की हर छोटी–बड़ी 
यादें, किस्से–कहानियां
एक निरंतरता है
मेरे अस्तित्व का जीवंत
दस्तावेज़ है मेरी बुनी हुई
रिश्ते की अनगढ़ चादर।
 

Friday, August 19, 2022

आंसुओ! व्यर्थ गया तुम्हारा बहना

आंसुओ! व्यर्थ ही गया तुम्हारा बहना
तुम्हारे सैलाब से 
उसके दिल में मेरे लिए 
प्यार की जो नदी सूख गई थी
वो तनिक गीली भी न हो सकी
उसके दिल में मेंरी चाहतों के
दरख़्त जो सूख गए थे
उनमें एक भी हरी पत्ती
न आ सकी
और तो और,
उसकी याद में मैने
गमले में जो ऑर्किड का
बोनसाई लगाया था न
सूख गया वो भी
तुम्हारे खारेपन से।
आंसुओ! बहने से बेहतर है
अब सूखकर जम जाओ
संभव है, भावनाओं की ज़मीन
तुम्हारा नमक पाकर 
किसी नए अंकुर को जन्म दे
और शायद, तुम्हारा बहना
अंततः किसी काम आ सके।



Friday, June 19, 2020

अंधेरे-उजाले

धीरे-धीरे अंधेरा मेरे पास आता गया
शायद रौशनी और अंधेरे में कोई
गुप्त समझौता हो गया था
अंधेरे के प्रतिपल बढ़ते कदम
रौशनी को पीछे धकेलते रहे और
रौशनी ने तनिक भी प्रतिरोध नहीं किया
धीरे-धीरे अंधेरे का प्रसार मेरे बाह्य
अस्तित्व को भेदकर अंतर्मन में होता गया
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ मूकदर्शक जैसे
ये सब घटित होता देखता रहा
आख़िर वो समय आ ही गया जब
अंधेरे-उजाले की दुरभिसंधि ने मुझे
अंधेरे के साम्राज्य का स्थायी नागरिक
बना दिया
अब, जबकि मेरे हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा है
मुझे रौशनी की स्मृति विचलित करती रहती है
अंधेरे की आदत तो होती जा रही है
लेकिन, अभी इसे हृदय से अपना नहीं सका हूँ
स्वीकार तो कर लिया है लेकिन
अंधेरे का सत्कार नहीं कर पाया हूँ
इस अंधेरे-उजाले के आने-जाने के 
पूरे घटनाक्रम में
मेरी क्या भूमिका रही?
क्या मैंने रौशनी को बचाने की, 
अंधेरे को रोकने की सच्ची कोशिश की?
मैंने कोई कोशिश की भी या नहीं?
क्या अंधेरा मुझे मात्र इसलिए स्वीकार्य 
नहीं हो पा रहा क्योंकि मुझे
उजाले की आदत हो गयी थी?
क्या वाकई अंधेरे और उजाले में कोई
विरोध शाश्वत विरोध-संघर्ष चल रहा है
या अंधेरे-उजाले का सह-अस्तित्व ही
शाश्वत सत्य है?
ये मेरी भूल है या असमर्थता जो मैं एक बार में
किसी एक का ही अस्तित्व स्वीकार कर पाता हूँ?
ऐसा तो नहीं कि अंधेरा और उजाला
एक ही शाश्वत इकाई के अविच्छिन्न घटक हैं?
और मैं इसे समझ नहीं पाया।
प्रश्न अनेक हैं, उत्तर कोई मिल नहीं रहा
मैं, मेरा अस्तित्व सवालों के इस महासागर
में डूबता जा रहा है क्षण-प्रतिक्षण।

Thursday, March 26, 2020

सपने

इस त्रासद और घुटन भरे समय में भी
सपने देखना बंद मत करना
देखना, कि एकदिन ख़त्म हो जाएंगी
"सोशल डिस्टेंसिंग" की पाबंदियां
तुम्हारी राजकुमारी आएगी
अपने राजकुमार से मिलने
और, तीन फुट दूर से महज़ "नमस्ते"
कहने की जगह
तुम गले लगा सकोगे उसको
बेहिचक सपने देखना कि
सब ठीक हो जाएगा एकदिन
सपने देखने के लिए 
नींद आने का इंतज़ार मत करना
खुली आँखों से देखना सपने
तय है कि गुज़र जाएगा ये त्रासद समय
लेकिन अपने पीछे छोड़ जाएगा
एक उदास-हताश व्यक्तित्व
तो वही सपने, जो तुमने देखे थे
घोर आपदा और संत्रास के समय 
तुम्हारे शरीर में एक नवीन 
ऊर्जा का संचार करेंगे
हाथों-पैरों में तरंग पैदा करेंगे
तुम्हारी आत्मा को पुनर्नवा करेंगे
इसीलिए कहता हूं
इस त्रासद और घुटन भरे समय में भी
सपने देखना बंद मत करना
देखते रहना सपने
बंद और खुली आँखों से।

Friday, February 14, 2020

भाषा का आविष्कार

भाषा का आविष्कार
प्रेम या घृणा को अभिव्यक्त करने
के लिए नहीं हुआ था।
सेपियन्स के आदिपूर्वज
जब वे आखेटक-संग्राहक अवस्था में ही थे
भाषा या लिपि के अभाव में भी
अपनी भावनाओं को सहज ही 
संप्रेषित कर पाते थे।
शरीर की अनेकानेक भाव-भंगिमाएं
लिखित भाषा के बिना भी
संचार के लिए पर्याप्त होती थीं।
फिर, शनैःशनैः विकास के क्रम में
व्यापार-वाणिज्य-विनिमय
के आदि-रूप का अभ्युदय हुआ।
इनके सहज संचालन के लिए
अब तक का सरल और अलिखित
संचार अपर्याप्त लगने लगा।
व्यापारिक-वाणिज्यिक लेनदेन
और इनके नियमों-शर्तों को 
सरंक्षित और स्थाई बनाने के लिए
लिपि का अविष्कार हुआ
और ये आविष्कार अचानक न होकर
कई सदियों में आकार ले सका।
मानव सभ्यता क्रमिक रूप से आगे बढ़ती रही
कुछ बारह हज़ार वर्ष पहले
आखेटक-संग्राहक अवस्था से
मानव कृषक-अवस्था में पहुँचता है।
सभ्यता के विकास-क्रम में इसे ही
"प्रथम कृषि-क्रांति" कहा जाता है।
तब से औद्योगिक-क्रांति के कई चरणों
से गुज़रते हुए आज हम
सेपियन्स के वर्तमान वंशज
सभ्यता-संस्कृति के निरंतर
निर्माण-परिष्कार-संवर्धन के रथ पर सवार
पहुँच गए हैं इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में।
आज का सारा ज्ञान-विज्ञान, व्यापार-वाणिज्य
साहित्य-संगीत, कला-संस्कृति
वैयक्तिक-सार्वजनिक संचार
सबकुछ भाषा पर ही निर्भर है।
भाषा और लिपि इन सबके लिए
अनिवार्य-अपरिहार्य है।
लेकिन, चूँकि, जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था,
"भाषा का अविष्कार
प्रेम या घृणा को अभिव्यक्त करने 
के लिए नहीं हुआ था।"
इसलिए, आज भी प्रेम या घृणा को
पूरी तरह व्यक्त करने में
दुनिया की कोई भी भाषा 
स्वयं को समर्थ नहीं पाती।
हम लाख प्रेमगीत या
शिकायती-पत्र लिख लें
शायद ही अपनी भावनाओं को 
विशुद्ध रूप से संप्रेषित कर पाते हैं।
इसके विपरीत सहज ही 
नैनों से नैन मिलते हैं और
संचार पूर्ण हो जाता है
हाथों से हाथों का स्पर्श होता है
और भावनाएं संप्रेषित हो जाती हैं
बिना किसी भाषा के बिना किसी बाधा के।
लगता है हमें अपनी सहज-सरल-जन्मजात
भाषा-लिपि रहित सम्प्रेषण क्षमता को
निखारने-सवांरने पर और अधिक 
ध्यान देने की आवश्यकता है।
नैनों के मिलन और हाथों के स्पर्श
की भाषा को और अधिक स्वीकार्य
बनाने की आवश्यकता है।

Friday, February 7, 2020

पलाश के फूल, नदी और साइबेरियाई प्रवासी

जब हम मिले थे पहली बार
यहाँ पलाश का एक जंगल हुआ करता था
उससे होकर एक नदी बहती थी
सर्दियों के मौसम में सुदूर साइबेरिया से
पक्षियों के समूह प्रवास करने आते थे
इस मनोरम आर्द्र भूमि में
इनके बीच हमारा संबंध पुष्पित-पल्लवित
होता गया
बरस-दर-बरस टेसू के फूलों और
साइबेरियाई प्रवासियों ने 
हमारे बीच ऊर्जा और उत्साह का संचार किया
मैं ख़ुद को सौभाग्यशाली समझता था
तुम्हारे साहचर्य, पलाश के जंगल
जंगल से गुजरती नदी और
साइबेरियाई प्रवासियों के बीच
फिर एक दिन अचानक
तुमने जाने का निर्णय ले लिया
मुझे छोड़कर, इन सब को छोड़कर
मैंने तुम्हारे जाने की वज़ह नहीं पूछी
हालाँकि, मैं जानना चाहता था
तुम्हारे जाने के बरस मैंने अनुभव किया
पलाश के पेड़ों पर कुछ कम फूल आये थे
नदी का प्रवाह भी तनिक मंद हो गया था
साइबेरियाई प्रवासी कुछ अनमने-उद्विग्न से थे
मैं वहीं ठहर गया था और देखा किया
बरस-दर-बरस पलाश के फूलों का कम होते जाना
नदी के प्रवाह और साइबेरियाई प्रवासियों 
की संख्या का निरंतर और क्रमिक 
रूप से न्यून होते जाना
तुम्हें गए कई बरस हो गए हैं
अब यहाँ जंगल में
नदी भी सूख गई है
हालाँकि उसके निशान अब भी बाकी हैं
साइबेरियाई प्रवासी भी अब नहीं आते
आज के अख़बार में एक ख़बर छपी है
"वैश्विक तापन के कारण इस क्षेत्र में
बहने वाली एक नदी सूख गयी,
पलाश के जंगल नष्ट हो गए
और साइबेरियाई पक्षियों ने आना बंद कर दिया है।"
पूरी दुनिया इस अख़बारी ख़बर से
सहमत है, सिवाय मेरे।
आज भी मुझे लगता है
जिस दिन तुम वापस आ जाओगी
ये पलाश का जंगल फिर से हरा हो जाएगा
नदी फिर से प्रवाहित होने लगेगी
फिर से आने लगेंगे साइबेरियाई प्रवासी
मेरे लिए न सही
एक बार तुम्हे वापस आना चाहिए
इन सब के लिए।

Thursday, January 23, 2020

बहुत प्यार करना, कितना प्यार करना होता है?

"बहुत प्यार करना"
कितना प्यार करना होता है?

कैसे कोई आश्वस्त हो कि
"बहुत" वाक़ई बहुत है?

जब आप कहते हैं कि आप
उसे दिल की अतल "गहराइयों" से
प्रेम करते हैं तो

उसके पास क्या पैमाना है
आपके दिल की "गहराई" को मापने का?

सारे भौतिक पैमाने इस जगह
पूरी तरह अनुपयोगी हैं

पैमाने के अभाव में हम
प्यार को उपमा, तुलना या रूपक
के सहारे व्यक्त करने की कोशिश करते हैं

लेकिन ये कोशिश भी निरर्थक है
जब "मूल राशि" ही अपरिमित है 
तो उसकी सार्थक तुलना या संगति
किसी अन्य राशि से कैसे संभव होगी 
भला?

तो, भला इसका समाधान क्या है?
क्या प्रेम करना ही छोड़ दें?
या प्रेम जताना छोड़ दें?

प्रेम करना या न करना 
आपके वश में नहीं है

प्रेम आपके अधीन नहीं है
प्रेम को जताना, उसे व्यक्त करना
बहुत कुछ आपके वश में है

जब आप किसी से अपने "बहुत" प्रेम
का इजहार करें तो
उसकी सहमति या स्वीकृति ही
आपके प्रेम को भौतिक वैधता प्रदान करेगी
यही एक पैमाना है प्रेम को मापने का
जिसके कोई नियम-क़ायदे नहीं हैं
ये पूर्णतः व्यक्तिनिष्ठ है

तो, सामने वाला यदि आपके प्यार को
स्वीकार न करे, उससे सहमत न हो
तो उससे शिकायत न करें
अपनी अस्वीकृति या असहमति में
वो भी उतना ही सही है जितने आप

तो, "बहुत" प्रेम करें, बार-बार प्रेम करें
लेकिन
प्रेम को मापने,आजमाने या साबित करने
की कोशिश न करें।